एक बड़ा रूपक रचने की कोशिश है ‘लहरिया लूटऽ ए बाबा’
सुधीर सुमन
आदित्यपुर (जमशेदपुर) में प्रलेस की ओर से 28 अगस्त को कहानीकार, रंगकर्मी, पत्रकार कृपाशंकर की कहानी का पाठ और परिचर्चा का आयोजन हुआ।
कहानी ग्रामीण पृष्ठभूमि की थी, जिसमें अमरता की लिप्सा, अंधविश्वास, धार्मिक पाखंड, क्रूरता और लुम्पेनिज्म को विषय बनाया गया था। कहानी पाठ से पूर्व कृपाशंकर ने इस तरह की परिचर्चाओं की खासियत की चर्चा करते हुए कहा कि उन्होंने पहले ‘अंधड़’ शीर्षक से यह कहानी एक बार सुनायी थी, उस पर श्रोताओं के जो सुझाव आए, उसको ध्यान में रखते हुए उन्होंने दुबारा इस कहानी को लिखा और शीर्षक भी बदल दिया। कहानी का शीर्षक ‘लहरिया लूटऽ ए बाबा’ सुनते ही शशि कुमार के मुंह से निकला- काशीनाथ सिंह! कृपाशंकर झट बोल पड़े- अपना रास्ता लो बाबा- काशीनाथ सिंह की कहानी का यह शीर्षक है। उन्होंने यह भी कहा कि काशीनाथ सिंह उनके प्रिय कहानीकार हैं।
कहानी पर चर्चा की शुरुआत करते हुए विनय कुमार ने कुछ स्थानों पर वर्तमान और भूतकाल तथा गांव और कस्बे के परिवेश की आभासगत विसंगतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया। हालांकि उन्होंने कहानी की भाषा और कंटेट की बहुत तारीफ की।
कवि वरुण प्रभात ने कहानी में प्रयुक्त भोजपुरी शब्दों के बारे में कहा कि कहानीकार गंवई परिवेश से ढूंढ़-ढूंढ़कर शब्द लाये हैं। कौवा का जीभ खाने से आदमी अमर होता है, यह लोकप्रचलित अंधविश्वास है। कहानी में जो दिखाया गया है, गांवों में सचमुच वैसा होता है। उन्होंने एक आदमी के बारे में बताया कि वे खूब खाते थे और आसानी से उन्हें शौच नहीं होता था। इस कहानी के पंडी जी भी वैसे ही हैं। हर गांव में चार-पांच ऐसे लोग होते हैं। वरुण ने कहा कि यह कहानी गुदगुदाती तो है ही, प्रहार भी करती है।
शशि कुमार ने कहा कि यह देखना जरूरी है कि कहानी में अंतर्द्वंद्व कहां है। उन्होंने सुझाव दिया कि यह दिखाना चाहिए कि जीभ काट दिये जाने के बाद भी कौआ अपने ऊपर अत्याचार करने वाले की ओर संकेत करता रहता है। डाॅ. के.के. लाल ने कहा कि इस कहानी में गजब की किस्सागोई है और इसकी शैली लाजवाब है। इसे सुनने में बहुत आनंद आया। अमरत्व की चाह के माहौल में आसपास की चुप्पी मानीखेज है। कौओं के चूजों की जीभ काटना उन्हें बेजुबान बनाना है। इसके व्यापक और गहरे अर्थ हैं।
सुधीर सुमन ने कहा कि कहानी की अपेक्षा कविताओं में प्रतीकों का ज्यादा इस्तेमाल होता है। कृपाशंकर जी की यह कहानी काव्यात्मक प्रवाह की कहानी है। कुछ वाक्यों में सहज रूप से अनुप्रास अलंकार आ गये हैं। इसमें बदलते हुए ग्रामीण सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ का जीवंत वर्णन तो है ही, भोजपुरी के मुहावरों और शब्दों ने इसकी वर्णन शैली को और अधिक असरदार बना दिया है। प्रेमचंद की कहानी ‘निमंत्रण’ की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि पंडीजी का जो माइंडसेट है, वह दरअसल वर्णवादी माइंडसेट है। वे मुस्लिम डाॅक्टर से अपना इलाज कराने के विरोधी हैं। वे भेदभाव भी करते हैं और पाखंडी भी हैं। उनका एक चेहरा पुजारी और कथावाचक का है, तो दूसरा चेहरा खास और निर्मम भोगी का है। अपनी और अपने वंशज की अमरता की चाह में वे कौओं के चूजों को मारते हैं। कहानी में आर्थिक उदारीकरण और सूचना साम्राज्य के दौर में धर्म की आड़ में बढ़ते लुम्पेनिज्म के दृश्य भी हैं। पुराने लोकप्रचलित अंधविश्वास, संकीर्णता और वर्णगत-सांप्रदायिक दंभ को टेलीविजन ने आज और बढ़ाया है। लेकिन अंत में हर गाँव शहर में मंदिर, पुजारी, पेड़-पौधों, चिड़िया के बसेरे और आंधी के जरिए कहानीकार जो एक बड़ा रूपक रचने की कोशिश करता है, उसे और विश्वसनीय तरीके से पेश किया जाना चाहिए। यह कहानी प्रेमचंद की परंपरा में होने के बावजूद अपने प्रतीकात्मक उद्देश्य के कारण उनसे भिन्न भी है।
द्वारिकानाथ पांडेय ने कहा कि अपने आप में यह कहानी मुकम्मल है। कहानीकार ने गांव के सच को दर्शाने में सफलता पायी है। कवि चंद्रकांत ने कहा कि बहुत दिन बाद एक अच्छी कहानी सुनने को मिली। अंत में कृपाशंकर ने कहा कि उन्होंने बदलते हुए गाँव की ही कहानी लिखने की कोशिश की है।
ऐन मौके पर मूसलाधार बारिश के कारण कई लोग नहीं आ पाये, पर सार्थक परिचर्चा हुई। यह शाम एक सार्थक शाम रही।
(इस आलेख के लेखक समकालीन जनमत के संपादक रहे हैं)