अलविदा, पद्मा जी!
डोगरी और हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्रि व लेखिका पद्मा सचदेव का 4 अगस्त, 2021 को मुंबई में निधन हो गया। उनका जाना भारतीय साहित्य जगत के लिए बहुत बड़ी क्षति है। 17 अप्रैल, 1940 को जम्मू के पुरमंडल गांव में जन्मी पद्मा जी जितनी डोगरी में लोकप्रिय थीं, हिन्दी पाठकों का प्यार भी उन्हें उतना ही मिला। पद्मा जी को कविता में जितनी महारत हासिल थी, उतनी ही सिद्धहस्त वह गद्य में भी थीं। उनकी आत्मकथा “बूंद बावड़ी” इसका स्पष्ट उदाहरण है। उन्होंने रेडियो में भी काफी काम किया। “मेरी कविता मेरे गीत”, “अमराई”, “भटको नहीं धनंजय”, “नौशीन”, “गोद भरी”, “अक्खरकुंड”, “बूंद बावड़ी” (आत्मकथा), “तवी ते चन्हान”, “नेहरियां गलियां”, “पोता पोता निम्बल”, “उत्तरबैहनी”, “तैथियां” और ‘अब न बनेगी देहरी’ (हिन्दी में विशिष्ट उपन्यास) आदि प्रसिद्ध कृतियां हैं। 1971 में उन्हें काव्य संग्रह “मेरी कविता मेरे गीत” के लिए डोगरी का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 2001 में वे भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान “पद्मश्री” से सम्मानित की गईं। उन्हें “नेहरू सोवियतलैंड पुरस्कार” से भी नवाजा गया। इसके अतिरिक्त भी वे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित की गईं। पद्मा जी को सारा जहां की ओर से भावपूर्ण श्रद्धांजलि। पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं, जिनका डोगरी से हिन्दी में अनुवाद उन्होंने स्वयं ही किया था।
भादों
भादों ने गुस्से में आाकर जब खिड़कियां तोड़ीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।सावन की बौछारें भरी दुपहरी में चलकर आईं
मिट्टी की पूरी दीवार गीली हो गई
दीवार पर पूता मकील (स्फेद मिट्टी) रो उठा
बाहिर घड़ियाली (घड़ा रखने का ऊंचा स्थान) भी सीलन से भर उठी
बादल ने जब दीवार पर बनी लकीरें मिटा दीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।बादल ने बेशुमार रंग बदले
कहीं सात रंगों वाली पेंग कहीं घनी बदली
मेरा ये दालान कभी चांदनी से भर उठा, कभी अंधेरे से
बाहर कच्ची रसोई की मिट्टी जरा जरा गिरती रही
कहीं कुंआरी आशाओं की उन्मुक्त हंसी बिखर गई
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।ऊपर के चोगान में जोर की बौछार पड़ी
मेरे घर के शाहतीरों का कोमल मन डर से कांप उठा
हवा के डर से कहीं आम की टहनियां और बेरी के दरख्त
जोर-जोर से आहें भरने लगे
निढाल और चूर हुई कूंजें एकाएक उड़ीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।छोटे-छोटे पत्तों में ठंड उतर आई
मुए थर-थर कांपते हुए नीले हो गए
मानो मां ने बांह से पकड़कर जबरदस्ती नहलाया हो
और नहाने से सुन्दरता को और रूप चढ़ गया
बेलों से जब वृक्षों ने कलियां उधार मांगीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।बारिश के जोर-जोर से दौड़ने की आवाज के सिवा सब सूना है
कोई और आवाज सुनाई नहीं पड़ती मानो सृष्टि सो रही है
टप-टप-टप किसी सवार के घोड़े की ठापों की आवाज है क्या?
ओह ये तो ऊपर के दालान से कोई पड़छत्ती चू रही है
मेरी तरह अपने-आपसे जब उसने बातें की
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।बारिश के बाद आसमान निखर आया
पक्षी पंक्तिबद्ध होकर उड़े।
ड्योढ़ी की दहलीज से जब एड़ियां उठाकर दूर देखती हूं
तो पहाड़ों के ऊपर से होकर दूर तक जाते बादल दिखाई देते हैं
धूप ने परदेसियों के लिए जब गलियां संवार दी
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।
काश
जो मैं किसी अंधेरे वन के
एक कोने में भुर्जी होती
जो मैं उतनी धरती होती
जितनी पर प्रियतम तुम चलते
घास बनूं उग जाऊं तेरे सारे जूठे बरतन मल दूं
मार-पीटकर कोई मानव
मुझे बनाए कागज कोरा
हाथों से मुझको थामे तुम
गहरी सोच मुझी पर लिखते
मेरी कामना पूरी होती
मेरा प्यार मुझे मिल जाता
किसी कपास के पौधे की मैं कली जो होती
कोई मेरे-जैसी चरखा
कात-कातकर कपड़ा बुनती
कोई दर्जी कुरता सीकर
भरे बाजार में बोली देता
दो धागों की मिन्नत सुनकर
तुम अनजाने में ले लेते
पता तुम्हें कुछ भी न चलता
तेरे अंग संग मैं रहती
मेरी कामना पूरी होती
मेरा प्यार मुझे मिल जाता
किसी पहाड़ी वन प्रदेश में
जो मैं इक झरना ही होती
सखियों को लेकर संग अपने
गाती-गाती आगे बढ़ती
पत्तों और पत्थर के ऊपर
लगा छलांगें खोह लांघती
तुम राही होते रस्ते के
दो घूंटों में होंठ छुआते
ठंडी-ठंडी हवा मैं बनकर
तेरे बालों को सहलाती
मेरी कामना पूरी होती
मेरा प्यार मुझे मिल जाता
डोली
अंधेरा पहाड़ी के ऊपर सहम-सहम कर चढ़ रहा है
पर्वतों की चोटियों पर चांद का प्रकाश छन-छन कर आ रहा है
पहरा देते वृक्ष सुबह होने की प्रतीक्षा में हैं
इस जगह का सुनसान वातावरण किसी आशा में स्तब्ध है
हाथ को हाथ नहीं सुझाई देता, कान में कोई आवाज नहीं पड़ती
क्या रानी क्या दासी सभी सांस रोके प्रतीक्षा में हैं
पहाड़ के पीछे से चांद हंसता हुआ धीरे-धीरे ऐसे उगता है
जैसे नई दुलहिन मुंह दिखाने के लिए धीरे-धीरे घूंघट उठा रही हो
यह वासन्ती चांद इसका अंग-अंग पीला है
किसी के वियोग में सूखकर कांटा हो गया है
या हो सकता है तपेदिक ने इसका ऐसा हाल किया हो
किसी का दिया हुआ शाप प्रत्यक्ष फल रहा है
जैसे जल्दी में कहार मेरी डोली लेकर दौड़ते हैं
वैसी ही जल्दी में ये भी संग-संग चलता है
इस राह में इतनी सुनसान है
कि कोई पत्ता तक नही हिलता
कहार जब तेजी से कदम उठाते हैं
तो मेरा मन कांप-कांप जाता है
इस अंधेरे में मैं वह हाथ ढूंढ रही हूं
जो फेरों के समय मेरे हाथ में था
वह शब्द ढूंढ़ रही हूं
जो आहुतियों के संग बोले गए थे
मैं वह गठबंधन ढूंढ रही हूं
जो इस जीवन के साथ निभना है
मैं वह कहानी ढूंढ़ रही हूं
जिसे यह कलम लिखेगी
भगवान मुझे, गर्मी का मौसम दो (गीत)
भगवान मुझे, गर्मी का मौसम दो, दु:ख सुख दो
परन्तु मैके से हमेशा मुझे ठंडी हवा आए
सुख का संदेशा आवे
कोई उड़ता पक्षी कभी मेरे घर के ऊपर से गुजरे
या कोई योगी भिक्षा मांगता हुआ आवे
मेरी मां का कोई संदेशा हो तो यही हो
कि तेरे भाई राजी-खुशी हैं।
ससुराल जाती बेटियों का मन कौन देख सका है
फिर आने की आशा कब है कौन जाने
मन छोटा-छोटा होता है, गले में कुछ फंस गया है
मेरी भाभी को जरा सी खरोंच भी न लगे
मां मुझे पहाड़ों में रहने का चाव है
मुझे पहाड़ों की ठंडी हवा भेज दो
जो साथ में चंपा की महक भी लाए
मुझसे चंबा शहर का सुख संदेशा कहे
गाड़ी दौड़ रही है गलियां दूर हो गई हैं
बिना दोष के बेटियां परदेसी हो गई हैं
मैं देश विदेश की कूंजड़ी हूं
मुझे अपने देश की ठंडी हवा आए।
ये राजा के महले क्या आपके हैं?
ये राजा के महले क्या आपके हैं?
मैं घर से बेघर हो चुकी हूं
मेरी आंखों की ज्योति छिन चुकी है
मुझे अंधी करके जो फेंक गए हैं
मेरे बागीचे से जो मेरा पौधा उखाड़ कर ले गए
मेरे पौधे को बौर भी पड़ा न था
मेरा साजन बहुत दूर भी तो न गया था
जिन्होंने कांपती टहनियां काट लीं
वे हंसुली वे दरांतियां क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
ये ऊंची दीवारें आकाश छूती हैं
महल माल व खजाने से मालामाल हैं
ये ईंटें इनका लाल रंग मन को भाता है
हमारे लहू की याद आती है
हमारे शरीर से पसीने की नदियां यहीं बही थीं
हमारे कंधों से शहतीर यहीं उतारे गए थे
धूप सहकर जिन्होंने ये दीवारें कायम कीं
क्या ये उनके महल आपके हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
बहरे कानों में भी तोप कह गई
मैं आज भी बारह बजा चुकी हूं
मेरे चांद के चढ़ने की बेला है
पर गली में कोई आहट नहीं हुई
न मेरे पांव ही दौड़कर प्रियतम को लेने गए
प्रियतम की रोज ही सुनाई पड़ने वाली
आवाज सहन नहीं होती
आधे रास्ते ही से जो घेरकर ले गई
वे लोहे की कड़ियां क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
जिन्होंने हमारे खून के दिये जलाकर
अंधेरी रात में उजाला किया हुआ है
चांद का गठबंधन थामे चांदनी हंस रही है
हमें दूर से देखती है, और हमारी हंसी उड़ाती है
जब आसमान पर आतिशबाजियां
और गोले छोड़े जाते हैं
तब हमारे मन के तारे टूट जाते हैं
हमारे नन्हे बच्चे जिन्हें हैरान होकर देख रहे हैं
सौन्दर्य से भरपूर वे दीवालियां क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
जिन्हें खोद-खोदकर हमने बीज और खाद डाले
जिनके मिट्टी के घरौंदों का गंदला जल पिया
जिनको धूप में पानी देकर सींचा था
प्रियतम सूखा मुंह देखकर नाराज भी हुए थे
जिनके अंकुरित होने पर मन खिल उठा था
और बौर पड़ने पर हमारी दीवाली हुई थी
किसी की क्रोध से घूरती आंखों ने
हमारी आंखों से पूछा
ये सुन्दर क्यारियां क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
जिस पर किसी का अधिकार हो चुका है
छोटी अवस्था से ही जिसे कोई ले गया है
जिसे देखकर नयन हर्ष से खिल उठे हैं
जिसकी याद में दिन और रात में कोई अन्तर
नहीं दिखाई देता
जिसका नाम लेकर हर कोई छेड़ जाता है
जो कब की कौल-करार किये बैठी हैं
वे आत्माएं क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?
सखि वे दिन कैसे थे!
सखि वे दिन कैसे थे, वह वक्त कैसा वक्त था
जब कड़वी बात न किसी को कही थी न सुनी थी
चिन्ता चिता के समान न थी चिन्ता के विषय में कुछ पता न था
वे दिन कितने मीठे थे, सभी कुछ सुन्दर दिखाई देता था
घाव कभी होता ही न था, होता भी था तो झट भर जाता था
अब ये कैसे घाव लगे हैं, इनका मरहम नहीं मिलता
इनका रिसना बन्द नहीं होता, इनका दर्द खाए जाता है
सखि वे दिन कैसे थे!
स्वप्न में सारे आकाश की परिक्रमा ले लिया करते ये
रात, अपने सौंन्दर्य से छल जाती थी, दिन भी बड़े लुभावने थे
धरती छोटी-सी लगती थी, रोज ही पूरी नाप लेते थे
आकाश एक पतंग जितना था उसकी डोर बड़ी लंबी बनवाते थे
वृक्षों के सिरे पर चढ़कर कितने ही पत्ते नीचे गिराए थे
सब बटवारा कितना सच्चा था, प्यार के रंग कितने गाढ़े थे
सखि वे दिन कैसे दिन थे!
वे दिन इतने खाली न थे जिन्दगी इतनी भारी न थी
दिन अपने परवश न थे, रातों पर किसी का अधिकार न था
चट्टानों पर भी नींद आकर मीठी लोरी सुनाती थी
सेन्थे (पौधा) की कलियां झुमके थे, कोई भी लकीर बिन्दी थी
अपना सौन्दर्य अनोखा था बावड़ी में से झांककर देखते थे
आंखों में सुरमा डालने का ढंग चोरी-चोरी सीखते थे
सखि वे दिन कैसे दिन थे!
वे दिन कितने छोटे दिन थे चांद और सूरज में सांझ थी
हर गुड़िया इक सुन्दर हीर थी, हर मनुष्य रांझा था
बड़े होने की एक आशा जगह-जगह छल जाती थी
हर आशा उम्र के संग बड़ी होकर उसकी तरह जवान होती जाती थी
विधाता की वह सुन्दर छलना आज भी याद आती है
बचपन में परवान चढ़ा हर महल मुंडेर गिरता लगता है
सखि वे दिन कैसे दिन थे!
बरछी बनकर वे यादें कलेजे में धंस रही हैं
दिन और रात बौराए हुए हैं, समय डंक मार रहा है
अब न वह वसन्त आएगा, न ही वह गुलाबी बैसाखी
इस जन्म में वह उम्र अब मेरे घर कभी नहीं आएगी
सफर के शुरू में विधाता क्या रंग दिखाता है
बचपन के कोमल दिनों में क्या-क्या रोल खिलाता है
सखि वे दिन कैसे थे
वह वक्त कैसा था!
(कविता संग्रह “मेरी कविता मेरे गीत” से साभार)