कला/संस्कृति/साहित्य

समाज और देश की विभाजनकारी शक्तियों की पड़ताल करती कहानियां

प्रो. सुधीर सुमन

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से जमशेदपुर के परसुडीह में कहानीकार-पत्रकार और रंगकर्मी कृपाशंकर के आवास पर एक रचना-गोष्ठी आयोजित की गयी, जिसमें पंकज मित्र और कृपाशंकर ने अपनी कहानियों का पाठ किया। पंकज मित्र की कहानी का शीर्षक था- ‘बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है’ तथा कृपाशंकर की कहानी का शीर्षक था- ‘राम ही शीश नवायो’। सांप्रदायिक नफरत, घृणा और उन्माद भड़काने वाली राजनीति प्रेरित फर्जी कहानियों के बरअक्स इन कहानियों में सामाजिक भाईचारा के नष्ट होने की पीड़ा थी। यह पीड़ा वास्तविक है। इसके प्रतिवाद की आकांक्षा समाज और देश को बचा लेने की आकांक्षा से पैदा हुई है, जो इन दोनों कहानियों में नज़र आयी।

पंकज मित्र की कहानी हल्के-फुल्के अंदाज में अपनी ही लंतरानियों और मौज में खोये युवाओं के जीवन की गतिविधियों से शुरू होती है। उनका अपने जीवन और समाज के प्रति कोई गंभीर और आदर्शवादी रुख नहीं है। लेकिन उसी मंडली का एक सदस्य जो प्रायः उपहास का पात्र बना रहता है, जिसे उसके मित्रों ने बापू नाम दिया है, वह बांग्लादेशी करार दिये गए ‘भय के जबड़ों के बीच’ पड़े सपन और उसके परिवार के पक्ष में खड़ा हो जाता है। विभाजनकारी नागरिकता कानून और उसके प्रतिवाद में जगह-जगह शाहीन बाग़ के तर्ज पर नये-नये बाग़ बनने की पृष्ठभूमि में रचित यह कहानी यह भी संकेत करती है कि अंधराष्ट्रवादी-सांप्रदायिक और वर्णवादी शक्तियों की विनाशकारी राजनीति के कारिंदे अब विकास यादव जैसे गैर-सवर्ण भी हैं।

कृपाशंकर की कहानी में कई ग्रामीण युवक हैं, आजीविका के लिए जो अलग-अलग तरह के काम करते हैं। बक्सर के रामरेखा घाट पर गंगा नदी की धारा में संग-संग तैरते हैं। एक-दूसरे से घुले-मिले हुए हैं। एक ही गाँव मंचूरापुर के निवासी हैं। गाँव की रामलीला में हिस्सा लेते हैं, जिसमें खैरूद्दीन राम की भूमिका निभाता है। जैसे ही धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करने वाली हिंदुत्ववादी ताक़तों का उभार आता है, वर्षों से क़ायम सामाजिक समरसता में दरार पड़ जाती है। नक़ली तीर-धनुष की जगह असली तीर-धनुष रखकर राम की हत्या की साज़िश रची जाती है। 

पठित कहानियों पर बोलते हुए विनय कुमार ने कहा कि पंकज मित्र की कहानी सामयिक घटना पर है, पर उसमें कुछ चीज़ें ऐसी हैं, जिस पर फेमनिस्टों को आपत्ति हो सकती है। संतोष सिंह का कहना था कि कृपाशंकर जैसे हैं, वैसा ही लिखते हैं। पंकज मित्र को विकास यादव के चरित्र को और खोलना चाहिए था। जय श्री राम को राजनीति कहाँ ले गयी उनकी कहानी इसे बख़ूबी दर्शाती है। शायर अहमद बद्र ने दोनों कहानियों की तारीफ़ करते हुए कहा कि पंकज जी की कहानी में बापू नाम का पात्र धीरे-धीरे बापू बनता जाता है। कृपाशंकर की कहानी में जैसे ही पता चलता है कि खैरूद्दीन राम की भूमिका करता है, वैसे ही यह अंदाजा लग जाता है कि आगे क्या होगा। संजय सोलोमन का कहना था कि दोनों कहानियों को सुनते हुए ऐसा लगा कि जैसे बिना विजुअल के कोई फ़िल्म देख रहे हों। जो जैसा है, वैसा ही उसे रखा जाए, यह कोशिश दोनों कहानियों में है। दोनों में रोचकता और उत्सुकता लगातार बनी रहती है। शशि कुमार का मानना था कि कृपाशंकर की कहानी में गंगा के पानी में कूदने वाले किरदार ज़्यादा हैं। जबकि पंकज की कहानी बीच में झटका देती है। जो समुदाय एक समय भाजपा के ख़िलाफ़ था, उसी में से विकास यादव जैसा चरित्र कैसे सामने आया, इस ओर ध्यान देने की ज़रूरत है।

कृपाशंकर ने पंकज मित्र की कहानी की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह जीवंत है, इसमें कहीं कोई खटका नहीं है। जो जीवन उन्होंने देखा-भोगा है, उसे ही कहानियों में दर्ज करते हैं। आंचलिकता उनकी कहानियों की ख़ासियत है। पंकज मित्र ने कृपाशंकर की कहानी पर बोलते हुए कहा कि उनकी कहानी महीन संकेतों के माध्यम से अपनी बात कहती है। उन्होंने कहा कि एक पौरुषवादी समाज बनाने की कोशिश की जा रही है। जो समाज समरस था, जहाँ जय सिया राम कहा जाता था, वहाँ कैसे जय श्री राम प्रचलन में आया, इसे उनकी कहानी दिखाती है।

सुधीर सुमन ने कहा कि दोनों कहानियाँ सांप्रदायिक घृणा और विभाजन की राजनीति का प्रतिवाद हैं। जहाँ तक पंकज मित्र की कहानी के युवकों की भाषा या उनकी धारणाओं का सवाल है, तो वह यथार्थपरक है। बापू नाम का पात्र जो करता है, उसे असत्य के प्रयोग के तौर पर देखना उनके चरित्र के लिए बिल्कुल स्वाभाविक है। एक तरह की लुंपेनिज्म है उनमें, जो उनकी भाषा में ध्वनित होती हे। पंकज की कहानियों की ख़ासियत यह है, इनसे भिन्न थोड़े बौड़म से, थोड़े बेचारे से पात्र अचानक प्रतिरोध की भूमिका में खड़े हो जाते हैं। हालाँकि जो यथास्थितिवादी या डरा हुआ मध्यवर्ग है, तब भी उनके साथ नहीं होता। बापू अपनी मित्र मंडली के लिए अंत में भी हानिकारक ही रहता है, पर वह अपनी बापूगिरी नहीं छोड़ता। पंकज की कहानियों में कथा-रस भरपूर है। उनकी कहानी की शैली पाठकों को रिलैक्स भी करती है। जहाँ तक कृपाशंकर की कहानी की बात है, तो वह इस चिंतनीय यथार्थ को दर्शाने के कारण महत्वपूर्ण है कि सांप्रदायिक नफरत की राजनीति गाँवों तक भी पहुँच चुकी है। वह भाईचारे को नष्ट कर रही है। हालाँकि दोनों कहानियों में मीडिया का पक्ष छूट गया है, जो समाज और देश को सांप्रदायिक रूप से बांटने और उन्माद फैलाने का माध्यम बन चुका है, जिसकी पहुँच अब गाँवों तक भी है।

अर्पिता का कहना था कि कहानी के चरित्रों की भाषा ऐसी होनी चाहिए, जिसे सारे पाठक समझ सकें। कृपाशंकर की कहानी में भोजपुरी का प्रयोग अच्छा लगता है, पर कई जगह उसे ग़ैर-भोजपुरी भाषी पाठकों के लिए समझना कठिन है। शैलेंद्र अस्थाना के अनुसार मेकिंग आफ़ गांधी कैसी होगी, इसे पंकज मित्र की कहानी दर्शाती है। कृपाशंकर की कहानी आहिस्ता से यह संकेत देती है कि हमारी संस्कृति में कैसे विष घोला गया होगा। कहानी की भाषा के संदर्भ में उनका कहना था कि ऐसे ही विभिन्न क्षेत्रों और अंचलों की बोलियों और मुहावरों से हिन्दी भाषा समृद्ध होगी। गौहर जी का मानना था कि दोनों कहानियों ने दर्द के माहौल को सामने रखा है। असत्य का जहाँ बोलबाला रहेगा, वहा गांधी ज़रूर पैदा होगा, पंकज मित्र की कहानी इस यक़ीन को ज़ाहिर करती है। कृपाशंकर की कहानी के बारे में उनका कहना था कि शुरू में उसमें मंजरनिगारी अधिक है, उसमें कहानी को ढूँढ़ना पड़ता है। वैसे उनकी कहानी का क्लाइमेक्स दो मानिया है और दोनों माने दिल को छूते हैं। उनका भी कहना था कि अफ़सानानिगार जिस समाज से अपने कैरेक्टर लेता है, उसे उसकी भाषा को भी लेना पड़ता है।

रचना-गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे जयनंदन ने कहा कि पंकज मित्र बेहतरीन कहानीकार हैं। भाषाओं पर उनकी जबर्दस्त पकड़ है। मगही का वे इतने अद्भुत ढंग से प्रयोग करते है, जितना मगहीभाषी होने के बावजूद मैं नहीं कर पाता। उन्होंने कहा कि दोनों कहानीकारों की कहानियों ने उन्हें अपनी दो कहानियों की याद दिला दी।

कहानी पाठ और उस पर चर्चा के बाद संजय सोलोमन, गौहर और अहमद बद्र ने अपनी ग़ज़लों का पाठ किया। संजय सोलोमन की ग़ज़ल फादर स्टेन स्वामी को समर्पित थी- ये वक्ते हाजत है अब चुप न रहो साथी, यलगार करो साथी।

गौहर ने अपनी ग़ज़ल में कहा-

याराना तेरा हमसे निभाएगा न जाएगा

अब जहर ज़िंदगी को पिलाया न जाएगा।

अहमद बद्र ने सुनाया-

ये तो कहते थे कि किस उंगली को क्या मालूम है

ये नहीं कहना कि बन चुकी मुट्ठी को क्या मालूम है

(लेखक समकालीन जनमत के संपादक हैं)

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